शरीर—जिसमें हाथ, पैर, रक्त, मांस आदि सम्मिलित हैं—इनमें से कोई भी 'मैं' नहीं है। यदि हम स्वयं को शरीर मानें, तो यह शरीर तो निरंतर परिवर्तनशील है और अंततः नष्ट हो जाता है। यदि मनुष्य अपनी पहचान शरीर से अलग किसी और चीज़ के रूप में करता है, तो उसे यह खोजना होगा कि वह वास्तव में क्या है। आत्मज्ञान प्राप्त करने की यह प्रक्रिया ठीक वैसे ही है, जैसे कोई प्याज के छिलकों को एक-एक कर अलग करता जाए—अंततः केवल शून्यता बचती है। लेकिन यह शून्यता वास्तव में 'निरपेक्ष चैतन्य' है, जो शुद्ध आत्मा है। जब व्यक्ति इस सत्य को अनुभव करता है, तो अहंकार समाप्त हो जाता है और उसे अपने वास्तविक स्वरूप का बोध होता है। यही आत्मज्ञान है, यही आत्म-साक्षात्कार है।
"मैं" का दो स्वरूप
हमारे भीतर दो प्रकार का "मैं" होता है।
1. पहला "मैं" यह हमारे सांसारिक संबंधों और संपत्तियों से जुड़ा होता है, जैसे—"मेरा घर", "मेरा परिवार", "मेरा धन" आदि। यह 'मैं' वास्तव में अहंकार की अभिव्यक्ति है, जो व्यक्ति को अपने शरीर और भौतिक वस्तुओं से जोड़कर रखता है। इस अहंकार के कारण व्यक्ति स्वयं को आत्मा के बजाय शरीर समझने लगता है और संसार के बंधनों में जकड़ जाता है।
2. दूसरा "मैं" यह आत्मा से संबंधित होता है। जब व्यक्ति समझ जाता है कि वह वास्तव में भगवान का अंश है, उनका सेवक है और नित्य मुक्त है, तो यह दूसरा "मैं" बन जाता है। यह अहंकार नहीं, बल्कि आत्मबोध होता है। यह "मैं" ही आत्मज्ञान की दिशा में ले जाता है और व्यक्ति को आध्यात्मिक मोक्ष प्राप्त करने में सहायता करता है।
हालांकि, जब तक शरीर जीवित है, तब तक "मैंपन" पूर्ण रूप से समाप्त नहीं हो सकता। जैसे नारियल के पेड़ से शाखाएँ हटा दी जाएँ, तो उनके निशान फिर भी पेड़ पर बने रहते हैं, वैसे ही आत्मसाक्षात्कार के बाद भी शरीर रहते हुए हल्का-सा "मैं" बना रहता है। लेकिन यह "मैं" अब बंधनकारी नहीं होता, क्योंकि यह सांसारिक ममता और आसक्ति से रहित हो जाता है।
नित्य ध्यान और मन की शुद्धि
श्री रामकृष्ण परमहंस और तोतापुरी स्वामी के बीच हुआ संवाद इस विषय को और स्पष्ट करता है। श्रीरामकृष्ण ने तोतापुरी स्वामी से पूछा कि जब वे आत्मसाक्षात्कार की अवस्था को प्राप्त कर चुके हैं, तो फिर उन्हें रोज ध्यान करने की क्या आवश्यकता है? तोतापुरी स्वामी ने उत्तर दिया कि जिस तरह एक पीतल के लोटे को रोज़ मांजा न जाए, तो वह मैला हो जाता है, उसी तरह नित्य ध्यान न करने से चित्त में अशुद्धि आ जाती है।
श्री रामकृष्ण ने इस पर एक और उदाहरण दिया—यदि लोटा सोने का हो, तो वह कभी काला नहीं पड़ेगा। अर्थात्, यदि व्यक्ति सच्चिदानंद परमात्मा के साक्षात्कार को पूर्ण रूप से प्राप्त कर ले, तो उसे फिर साधना करने की आवश्यकता नहीं रहती। लेकिन जब तक यह अवस्था पूरी तरह नहीं आती, तब तक ध्यान आवश्यक है।
यहा हमें यह भी समझाता है कि आत्मज्ञान प्राप्त करना एक सतत प्रक्रिया है। केवल एक बार सत्य को जान लेना पर्याप्त नहीं होता, बल्कि उस सत्य को अपने जीवन में निरंतर बनाए रखना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। आत्मसाक्षात्कार के बाद भी साधना जारी रखना इसलिए आवश्यक है ताकि मन फिर से सांसारिक आकर्षणों और विकारों की ओर न खिंच जाए।
अज्ञान और ज्ञान: द्वैत का नियम
जब तक "मैं" का भाव बना रहेगा, तब तक "तुम" का भी भाव रहेगा। जैसे, यदि कोई उजाले का ज्ञान रखता है, तो उसे अंधेरे का भी ज्ञान होगा। यदि कोई अच्छे को जानता है, तो उसे बुरे का भी ज्ञान रहेगा। पुण्य का ज्ञान रखने वाले को पाप का भी बोध होगा।
यह द्वैत का नियम है—जहाँ एक चीज़ होगी, वहाँ उसका विपरीत भी होगा। संसार में रहकर व्यक्ति पूरी तरह से द्वैत से मुक्त नहीं हो सकता। लेकिन तत्वज्ञान रूपी जूते पहनकर वह इस कांटों भरे संसार में बिना कष्ट के चल सकता है। अर्थात्, यदि व्यक्ति तत्वज्ञान को अपने जीवन का आधार बना ले, तो संसार के दुख और मोह उसे प्रभावित नहीं कर पाएँगे।
साकार और निराकार: एक ही सत्य के दो रूप
साकार और निराकार के भेद को जल और बर्फ के उदाहरण से समझा जा सकता है। जल जब जमता है, तो वह बर्फ बन जाता है—यह साकार रूप है। जब बर्फ पिघल जाती है, तो वह फिर से जल बन जाती है—यह निराकार रूप है।
परमात्मा भी यही है—वह मूल रूप से निराकार है, लेकिन भक्तों की भक्ति के प्रभाव से वह साकार रूप में प्रकट होते हैं।
जैसे महा-सागर में केवल जल ही जल होता है, लेकिन अत्यधिक ठंड के कारण कुछ स्थानों पर वह बर्फ में बदल जाता है, वैसे ही निराकार ब्रह्म भक्तों की प्रेम और भक्ति रूपी ठंडक के कारण साकार रूप में प्रकट होते हैं। जब ज्ञान रूपी सूर्य उदय होता है, तो यह साकार रूप पिघल जाता है और केवल निराकार सत्य ही शेष रहता है।
आत्मज्ञान की प्राप्ति का मार्ग
1. स्वयं को शरीर से अलग मानना: जब तक व्यक्ति स्वयं को शरीर समझता है, तब तक वह आत्मा को नहीं जान सकता। आत्मज्ञान के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति स्वयं को शरीर से अलग एक शुद्ध चैतन्य आत्मा के रूप में पहचाने।
2. अहंकार का त्याग: अहंकार ही वह दीवार है जो आत्मा को परमात्मा से अलग करती है। जब तक "मैं" का भाव बना रहता है, तब तक व्यक्ति सच्चे आत्मज्ञान को प्राप्त नहीं कर सकता।
3. नित्य साधना और ध्यान: आत्मज्ञान कोई एक बार होने वाली घटना नहीं है, बल्कि यह निरंतर अभ्यास और साधना की प्रक्रिया है। ध्यान, प्रार्थना और सत्संग के माध्यम से व्यक्ति अपने मन को शुद्ध कर सकता है और आत्मज्ञान की ओर बढ़ सकता है।
4. संसार में रहकर भी संसार से परे रहना: आत्मज्ञानी व्यक्ति संसार में रहते हुए भी संसार में नहीं रहता। वह अपने कार्यों को निष्काम भाव से करता है और संसार के सुख-दुख से अप्रभावित रहता है।
आत्मज्ञान की खोज जीवन का परम उद्देश्य है। "मैं कौन हूँ?" इस प्रश्न का उत्तर खोजने वाला व्यक्ति धीरे-धीरे अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान लेता है और यह जान लेता है कि वह न तो शरीर है, न मन, न अहंकार—बल्कि वह शुद्ध आत्मा है। जब यह अनुभूति सुदृढ़ हो जाती है, तो व्यक्ति को सच्ची मुक्ति प्राप्त होती है।
साकार और निराकार परमात्मा एक ही सत्य के दो रूप हैं। भक्तों के लिए परमात्मा साकार होते हैं, लेकिन ज्ञान प्राप्त होने के बाद वही निराकार रूप में अनुभव किए जाते हैं। आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए साधना आवश्यक है, और जब व्यक्ति इस ज्ञान को पूरी तरह आत्मसात कर लेता है, तब उसे परम शांति और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
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