योग Yoga


योग शब्द संस्कृत के "युज्" धातु से बना है, जिसमें "धञ्" प्रत्यय लगने से इसका निर्माण हुआ है। पाणिनीय व्याकरण के अनुसार, "युज्" धातु तीन प्रमुख गणों में पायी जाती है:
  1. युज् समाधौ (दिवादि गण, आत्मनेपदी) - जिसका अर्थ है समाधि या ध्यानस्थ अवस्था।
  2. युजिर योगे (रुधादि गण, उभयपदी) - जिसका अर्थ है जोड़ना या मिलाना।
  3. युज् संयमने (चुरादि गण, परस्मैपदी) - जिसका अर्थ है संयम या नियंत्रण।
इस प्रकार, योग का अर्थ समाधि, जोड़ और संयम तीनों का समन्वय है। योग, आत्मिक प्रगति की वह विधा है जो व्यक्तित्व को पूर्णता की ओर ले जाती है।

आत्मिक प्रगति के दो मुख्य चरण होते हैं:
  1. योग: भावनात्मक शुद्धि का मार्ग
  2. तप: क्रियात्मक शुद्धि का मार्ग

Yoga
योग सूक्ष्म चेतना को परिमार्जित करता है, जबकि तप स्थूल शरीर को परिष्कृत करता है। मनुष्य का अस्तित्व चैतन्य आत्मा (प्राण) और जड़ शरीर के मेल से बना है, अतः दोनों का ही परिमार्जन आवश्यक है। भावशुद्धि को योग और क्रियाशुद्धि को तप कहा जाता है। योग मार्ग का साधक, योग साधना द्वारा कुण्डलिनी शक्ति का जागरण करता है। कुण्डलिनी वह सुप्त शक्ति है, जो मूलाधार चक्र में स्थित रहती है। साधना के माध्यम से जब यह शक्ति जाग्रत होती है तो शरीर के विभिन्न चक्रों का भेदन करती हुई ऊपर उठती है और साधक को आत्मसाक्षात्कार की ओर ले जाती है।

योग साधक को वेद का अध्ययन और संत के सत्संग का सहारा लेना चाहिए। क्योंकि यह पथ केवल शारीरिक नहीं, अपितु मानसिक, भावनात्मक और आत्मिक प्रगति का मार्ग है।

 योग छः प्रकार होते हैं: 

1. राजयोग (अष्टांग योग)
महर्षि पतंजलि द्वारा प्रतिपादित राजयोग को अष्टांग योग भी कहा जाता है। इसमें आठ अंगों — यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि — के माध्यम से साधक मन को नियंत्रण में लाकर आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करता है। राजयोग का मुख्य उद्देश्य चित्तवृत्तियों का निरोध कर चैतन्य आत्मा का साक्षात्कार करना है।

2. हठयोग
हठयोग एक प्राचीन योग पद्धति है, जिसमें "ह" का अर्थ सूर्य (पिंगला नाड़ी - सक्रियता) और "ठ" का अर्थ चंद्रमा (इड़ा नाड़ी - शांति) है। हठयोग का उद्देश्य इन दोनों ऊर्जाओं का संतुलन साधना है। इसमें आसन, प्राणायाम, बंध, मुद्रा और ध्यान का विशेष महत्व है। यह शरीर, मन और आत्मा के सामंजस्य का मार्ग है।

3. लययोग
"लय" का अर्थ है विलय और "योग" का अर्थ है एकता। लययोग में साधक अपने मन और चेतना को परमात्मा में विलीन करने का प्रयास करता है। यह ध्यान और समाधि की उच्चतम अवस्थाओं को प्राप्त करने की पद्धति है।

4. ज्ञानयोग
ज्ञानयोग मुक्ति का मार्ग है, जो वेदांत दर्शन पर आधारित है। इसमें आत्मा (आत्मन) और परमात्मा (ब्रह्म) की एकता को बौद्धिक तथा ध्यानात्मक ज्ञान के माध्यम से समझा जाता है। इसका साधक विवेक, वैराग्य और आत्मचिन्तन के द्वारा ब्रह्मज्ञान प्राप्त करता है।

5. कर्मयोग
कर्मयोग भगवद्गीता में वर्णित है, जो निष्काम कर्म पर आधारित है। इसमें साधक बिना फल की आकांक्षा के अपना कर्तव्य निभाता है। इसका मुख्य उद्देश्य है कर्म करते हुए भी अपने भीतर परमात्मा के प्रति अटूट भक्ति और समर्पण बनाए रखना।

6. भक्तियोग
भक्तियोग प्रेम, श्रद्धा और समर्पण का मार्ग है। इसमें साधक अपने ईष्ट देवता के प्रति भक्ति भाव से स्वयं को अर्पित करता है। यह भावनाओं को परिष्कृत कर दिव्य प्रेम में परिवर्तित करने का पथ है।

 योग का अर्थ 

वैदिक संहिताओं में योग का तात्पर्य मन, वचन और कर्म द्वारा परमात्मा में एकाग्र हो जाने से है। संसार के संयोग-वियोग से रहित होकर, चिर स्थायी सुख — जो केवल परमात्मा में है — को प्राप्त करना ही योग है।

महर्षि पतंजलि ने योग को चित्तवृत्तियों के निरोध के रूप में परिभाषित किया है। तृष्णा, मोह, अहंकार आदि वृत्तियों का शमन कर चित्त को स्थिर करना योग है। यह साधना सांसारिक वासनाओं से ऊपर उठकर आत्मा को परमात्मा से जोड़ने का प्रयास है।

 योग साधना में शारीरिक एवं मानसिक क्रियाएं 

योग साधना में विभिन्न शारीरिक और मानसिक अभ्यास अपनाए जाते हैं:

शारीरिक क्रियाएं:

आसन (शारीरिक मुद्राएं)
प्राणायाम (श्वास का नियंत्रण)
बंध (ऊर्जा नियंत्रण)
मुद्रा (विशेष हस्त-मुद्राएं)
शुद्धि क्रियाएं: नैति, धौती, बस्ति, न्यौली, कपालभाति आदि।
अन्य उपासनाएं: मौन व्रत, भूमिशयन, ताप सहनशीलता, कीर्तन आदि। इनका मुख्य उद्देश्य शरीर को स्वस्थ, समर्थ और पवित्र बनाना है ताकि वह साधना के योग्य बन सके।

मानसिक साधनाएं:

जप (मंत्रों का उच्चारण)
ध्यान (एकाग्रता साधना)
नाद (आंतरिक ध्वनि का अनुभव)
स्वाध्याय (आध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन)
सत्संग (सज्जनों का संग)
इन साधनों से साधक की चेतना को दिशा, ऊर्जा और प्रकाश मिलता है।

 मेरुदण्ड : शरीर का आध्यात्मिक आधार 

मेरुदण्ड या रीढ़ यह मानव शरीर का आधार है। यह मेरुदण्ड छोटे-छोटे तैंतीस अस्थि खण्डों के साथ बना है। सभी खण्ड में तत्त्वदर्शियों की ऐसी विशेष शक्तियां परलक्षित होती है, जिनका साथ देवी शक्तियों से होता है।

देवताओं में जिन शक्तियों का केन्द्र होता है, वे शक्तियां भिन्न-भिन्न रूप में मेरुदण्ड के अस्थि-खण्डों में पायी जाती हैं, इसलिए यह निष्कम निकला कि मेरुदण्ड तैंतीस देवताओं का प्रतिनिधित्व करता है। आठ वसु, बारह आदित्य, ग्यारह रुद्र, इन्द्र और प्रजापति इन इन तैंतीसों की शक्तियां उसमें बीज रूप उपस्थित रहती है।

Yoga
योगियों ने साधना की दृष्टि से इस शरीर को विश्व का प्रतीक जानकर दो भागों में विभक्त किया है - पिण्ड एवं ब्रह्माण्ड

पिण्ड (सूक्ष्म और स्थूल शरीर) पिण्ड शब्द का अर्थ है व्यक्तिगत शरीर या आत्म-स्तर का अस्तित्व, जिसे हम स्थूल शरीर, इन्द्रियाँ, मन, प्राण आदि के रूप में जानते हैं। ब्रह्माण्ड (बाह्य विराट चेतना) ब्रह्माण्ड वह विराट सत्ता है, जो समस्त सृष्टि को अपने भीतर समेटे हुए है — यह साकार और निराकार दोनों रूपों में विद्यमान है। योग का उद्देश्य पिण्ड (व्यक्तिगत चेतना) को ब्रह्माण्ड (सर्वव्यापक चेतना) से जोड़ना है।

इस दर्शन के अनुसार, जो कुछ ब्रह्माण्ड में है, वही लघुरूप में हमारे शरीर (पिण्ड) में भी विद्यमान है। बाहर नक्षत्र मंडल है, वैसे ही भीतर चक्र मंडल हैं। बाहर सूर्य-चंद्र हैं, तो भीतर इड़ा-पिंगला नाड़ियाँ हैं। बाहर ब्रह्माण्डीय ऊर्जा है, भीतर प्राणशक्ति है।

इसलिए, योगी साधना द्वारा अपने अंदर के पिण्ड को ब्रह्माण्ड के विराट स्वरूप से एकीकृत करने का प्रयास करते हैं। इसे ही "पिण्ड-ब्रह्माण्ड का मिलन" कहते हैं।

 चक्र, नाड़ियाँ और सहस्त्रदल कमल 

कुण्डलिनी शक्ति मूलाधार चक्र में सुप्त अवस्था में रहती है। साधक जब योग साधना द्वारा इसे जागृत करता है, तो यह शक्ति क्रमशः सभी चक्रों को भेदती हुई सुषुम्ना मार्ग से सहस्त्रदल कमल तक पहुँचती है।

यह यात्रा माया के बंधनों को तोड़ती है और साधक को आत्मसाक्षात्कार तथा ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति कराती है। यह अवस्था मृत्यु के भय से मुक्ति और चिरन्तन आनन्द की प्राप्ति की अवस्था है।

मानव शरीर में बहत्तर हजार नाड़ियां है। जिनमें तीन प्रमुख नाड़ी है 1. इड़ा 2. पिंगला 3. सुषुम्ना। ये नाड़ियां अपने मूल - स्थान से शरीर के विभिन्न जगह में गई है। जहां पर अनेक नाड़ियां एकत्र हो जाती हैं वहां पर एक चक्र- सा स्थान बन जाता है।

इस प्रकार शरीर में छः चक्र तथा सहस्त्रदल कमल है। चक्रों के नाम हैं- मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध तथा आज्ञा इस चक्र से परे है - सहस्त्रदल कमल। प्रथम पांच चक्र तो पिण्ड में अर्थात् शरीर में कण्ठ तक नीचे के हिस्से में अवस्थित हैं; किन्तु अन्तिम अर्थात् आज्ञा चक्र का आधा अंश पिण्ड में तथा आधा अंश ब्रह्माण्ड में है।

मूलाधार चक्र वासना और भौतिकता से जुड़ा है, स्वाधिष्ठान रचनात्मकता से, मणिपुर इच्छाशक्ति से, अनाहत प्रेम और करुणा से, विशुद्ध आत्म-अभिव्यक्ति से, और आज्ञा चक्र अंतर्दृष्टि तथा दिव्य दर्शन से सम्बंधित है। जब कुण्डलिनी इन सभी चक्रों को पार कर सहस्रार चक्र तक पहुँचती है, तो साधक ब्रह्मज्ञान को साक्षात करता है।

साधकों ने इसकी कल्पना ही नहीं की है - अपतु इसका अभ्यास कर साक्षात् भी किया है। कुण्डलिनी जो विकृति रुपिणी प्रकृति तथा बन्धनरुपिणी माया का प्रतीक है, सामान्यतः सबसे निचले चक्र अर्थात् मूलाधार में अवस्थित रहा करती है।

Yoga
फलत: हम सभी अपने शरीर के निचले हिस्से तथा उसमें केन्द्रित वासनाओं में लिप्त रहा करते हैं। यदि हमें साधना - पथ का पथिक होना है तो मूलाधार में सोयी हुई कुण्डलिनी शक्ति को जाग्रत् करना होगा, जिससे वह सभी चक्रों का भेदन करती हुई अर्थात् प्रकृति और माया के आवरण जाल को काटती हुई मृत्युलोक से उठकर ब्रह्माण्ड स्थित आज्ञा चक्र में पहुंचे; और अभ्यासी उससे भी ऊपर ब्रह्रारन्ध में सहस्त्रदल कमल में विराजमान होकर ब्रह्म तथा उसकी ज्योति तथा अनवरत होनेवाले अनाहत नाद के साथ एकाकार अथवा तादात्म्य - भाव सम्पन्न कर सके।

योग केवल शारीरिक व्यायाम नहीं है, बल्कि यह जीवन का सम्पूर्ण विज्ञान है। यह चित्त, शरीर और आत्मा को परिष्कृत कर परमात्मा से एकाकार करने का पथ है।
योग से ही मानव अपनी भौतिक सीमाओं को पार कर ब्रह्माण्डीय चेतना से तादात्म्य स्थापित कर सकता है। योग वह साधना है जो व्यक्ति को आत्मिक पूर्णता, जीवन में स्थिरता और परम आनन्द की प्राप्ति कराती है।                                             

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